उत्तराखंड: जानिए आखिर क्या है ‘इगास’ और क्या है पूरी कहानी…!

0
552

देहरादून: त्योहार और उत्सव के मौसम में उत्तराखंड का जिक्र न आए यह संभव ही नहीं है। देशभर में दीपावली का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया गया। ये भारत की खूबसूरती ही है कि अलग-अलग प्रान्तों में दीपावली का त्योहार प्रकाशपर्व के साथ-साथ अपने वर्षों पुरानी परंपरागत तौर-तरीकों के साथ मनाया जाता है। ऐसा ही उत्तराखंड में भी दीपावली को एक अनूठे अंदाज में मनाने की परंपरा है।

ये भी पढ़ें:घर-घर भाजपा हर बार भाजपा कार्यक्रम के तहत जनता से सम्पर्क करते गणेश जोशी

उत्तराखंड में बग्वाल, इगास मनाने की परंपरा है। दीपावली को यहां बग्वाल कहा जाता है, जबकि बग्वाल के 11 दिन बाद एक और दीपावली मनाई जाती है, जिसे इगास कहते हैं। पहाड़ की लोक संस्कृति से जुड़े इगास पर्व के दिन घरों की साफ-सफाई के बाद मीठे पकवान बनाए जाते हैं और देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। साथ ही गाय व बैलों की पूजा की जाती है। शाम के वक्त गांव के किसी खाली खेत अथवा खलिहान में नृत्य के भैलो खेला जाता है। भैलो एक प्रकार की मशाल होती है, जिसे नृत्य के दौरान घुमाया जाता है। इगास पर पटाखों का प्रयोग नहीं किया जाता है।

वैसे तो इगास को लेकर कई कथा-कहानियां हैं। लेकिन अगर इगास को वास्तव में जानना हो तो, केवल दो लाइनों में जाना जा सकता है। इन्हीं दो पंक्तियों में पूरे त्योहार का सार छिपा है। वो लाइनें हैं… बारह ए गैनी बग्वाली मेरो माधो नि आई, सोलह ऐनी श्राद्ध मेरो माधो नी आई। मतलब साफ है। बारह बग्वाल चली गई, लेकिन माधो सिंह लौटकर नहीं आए। सोलह श्राद्ध चले गए, लेकिन माधो सिंह का अब तक कोई पता नहीं है। पूरी सेना का कहीं कुछ पता नहीं चल पाया। दीपावली पर भी वापस नहीं आने पर लोगों ने दीपावली नहीं मनाई। इगास की पूरी कहानी वीर भड़ माधो सिंह भंडारी के आसपास ही है। आईये जानते हैं क्या है पूरी कहानी…।

असल कहानी यही मानी जाती है कि करीब 400 साल पहले महाराजा महिपत शाह को तिब्बतियों से वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या की जानकारी मिली, तो बहुत गुस्से में थे। उन्होंने तुरंत इसकी सूचना माधो सिंह भंडारी को दी और तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दे दिया। वीर भड़ माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार और श्रीनगर समेत अन्य क्षेत्रों सेयोद्धाओं को बुलाकर सेना तैयार की और तिब्बत पर हमला बोल दिया। इस सेना ने द्वापा नरेश को हराकर, उस पर कर लगा दिया। इतना ही नहीं, तिब्बत सीमा पर मुनारें गाड़ दिए, जिनमें से कुछ मुनारंे आज तक मौजूद हैं। इतना ही नहीं मैक मोहन रेखा निर्धारित करते हुए भी इन मुनारों को सीमा माना गया। इस दौरान बर्फ से पूरे रास्ते बंद हो गए। रास्ता खोजते-खोजते वीर योद्धा माधो सिंह कुमाऊं-गढ़वाल के दुसांत क्षेत्र में पहुंच गये थे।

तिब्बत से युद्ध करने गई सेना को जब कुछ पता नहीं चला, तो पूरे क्षेत्र में लोग घबरा गए। शोक में डूब गए। इतना ही नहीं माधो सिंह भंडारी के विरोधियों ने उनके मारे जानें की खबरें भी फैला दी थी। इससे दुखी लोगों के विरह को कई कविताओं में भी कवियों ने जगह दी है। लेकिन, भंडारी उच्छनंदन गढ़ पहुंच गये और गढ़पति की बेटी उदिना और देखते ही प्रेम हो गया। कहा जाता है कि दो दिन बाद ही उदिना का विवाह होना था। विवाह में माधो सिंह जौनसारी वीरों को ले नर्तकों बनकर बारातियों को मनोरंजन करने लगे। उदिना भी नृत्य देखने आई और माधो सिंह को पहचान गई। माधो सिंह का इशारा मिलते ही नृत्य में खिलौना बनी तलवारें चमक उठी और माधो सिंह उदिना को भगा लाये। जब माधो सिंह युद्ध जीत कर वापस श्रीनगर पहुंचे तब उन समस्त क्षेत्र के लोगों ने जिनके वीर इस युद्ध में गये थे इगास या बग्वाल मनाई।

एकादशी के दिन मिट्ठे करेले और लाल बासमती के चावल का भात बनाया जाता है। भैलो बनाने के लिए गांवा से सुरमाडी के लगले (बेल) लेने के लिए लोग टोलियों में निकलते थे। चीड के पेड़ के अधिक ज्वलनशील हिस्से, जिसमें लीसा होता था। उसको कोटकर लाया जाता है। चीड के अलावा इसके छिलके से भी भैलो बनाए जाते थे। इतना ही नहीं ब्लू पाइन के छिलकों (बगोट) तिब्बत यहां से आयात करता था और इसकी मोटी कीमत चुकाते थे।

भैलू…

भैलू…उजाला करने वाला। इसका एक नाम अंधया भी है। अंध्या मतलब अंधेरे को मात देने वाला। इगास में मुख्य आकर्षण भी भैलू ही होता है। लोग भैलू खेलते हैं। इसमें चीड के पेड़ लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्दर का लीसा काफी देर तक लकड़ी को जलाये रखता है। पहले गांव के लोग मिलकी एक बड़ा भैलू बनाते थे। जिसमें समस्त गांव के लोग अपने-अपने घरों से चीड़ की लकड़ी देते थे। कहा जाता है कि इसे जो उठाता था, उसमें भीत अवतरित होते थे।

ये भी कथा

ऐसा भी माना जाता है कि प्रभु राम जब 14 साल बाद लंका फतह करके वापिस दिवाली के दिन अयोध्या आये थे तो उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद पता चली, जिस कारण उन्होंने 11 दिन बाद दिवाली मनाई।

एक और कहानी महाभारत काल से भी जुड़ी बताई जाती है। दंत कथाओं के अनुसार महाभारत काल में भीम को किसी राक्षस ने युद्ध की चेतावनी थी। कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब भीम वापस लौटे तो पांडवों ने दीपोत्सव मनाया था। कहा जाता है कि इस को भी इगास के रूप में ही मनाया जाता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here