इस वजह से प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति के सामने रखा शीशा अपने आप टूट जाता…!

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सनातन मान्यताओं में मूर्ति पूजा का विधान है, भक्त अपने ईश्वर को किसी भी रूप और किसी भी स्वरूप में पूज सकता है। कोई उस सर्वोच्च शक्ति को गणेश का रूप देते हैं तो कोई कृष्ण का, कोई राम कहता है तो कोई दुर्गा…..मूर्ति पूजा की स्वीकार्यता ने ईश्वर की भक्ति को बहुत आसान और सहज कर दिया है क्योंकि निराकार स्वरूप में पूजना वाकई कठिन है।

मूर्ति पूजा का विधान होने की वजह से हिंदू धर्म में प्राण प्रतिष्ठा भी अपना एक विशेष महत्व रखती है। जिस मूर्ति में प्राण प्रत्यिष्ठित होते हैं वह किसी भी भक्त के लिये स्वयं भगवान के रूप में स्वीकार कर ली जाती है। शास्त्रीय विधि-विधान द्वारा किया जाने वाली प्राण प्रतिष्ठा चरणों का एक ऐसा समूह है जिसके द्वारा उस विशिष्ट मूर्ति में दैवीय ऊर्जा का संचार किया जाता है और वह मूर्ति उस विशिष्ट ऊर्जा का सचेतन अवतार बन जाती है।

प्राण प्रतिष्ठा के अंतिम चरणों में से एक है ‘चक्षु उन्मीलन’ कहा जाता है… जब यह प्रक्रिया पूर्ण होती है तब देवता के नेत्र खुल जाते हैं….अपनी उस दृष्टि से देवता आशीर्वाद देना आरंभ करते हैं..। जब देवता की आंखें इस प्रकार खोली जाती है तब उस मूर्ति के सामने एक दर्पण रखा जाता है…ना सिर्फ जीवंतता या भावना को मायने देने के लिये बल्कि देवता भी उस दर्पण में अपने उज्जवल व्यक्तित्व को देख पाते हैं। लेकिन जब उस मूर्ति में ऊर्जा की प्रचुरता हो जाती है या जब प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति अत्याधिक ऊर्जावान हो जाती है तो नेत्र खोलते ही सामने रखे दर्पण से वह ऊर्जा टकरा जाती है, जिसके प्रभाव से वह दर्पण टूट जाता है।

लेकिन यहां सवाल यह भी उठता है कि जब मूर्ति के नेत्र खुलते ही सामने रखा शीशा टूट जाता है तो वह मूर्ति भक्तों और अपने समक्ष खड़े अन्य लोगों को कैसे चोट नहीं पहुंचाती?निश्चित रूप से यह उस मूर्ति में बसी उस दैवीय शक्ति के विवेक और करुणा का ही प्रभाव है।विशेषज्ञों के अनुसार भक्त के दर्शन करने के भाव भिन्न-भिन्न होते हैं। प्राण प्रतिष्ठा होने के पश्चात भक्तों को सबसे पहले ईश्वर के चरणों का दर्शन करना चाहिये… और उसके बाद उनके चेहरे को देखना चाहिये।

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