उत्तराखंड का एक ऐसा मंदिर जहां चोरी करने से पूरी हो जाती हैं श्रद्धालुओं की मनोकामनाएं..

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उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है क्योंकि यह देवो की भूमी है और यहां कई मंदिर हैं। रोजाना यंहा लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है। श्रद्धालु यहां हरिद्वार, रुड़की, ऋषिकेश आदि जैसे शहरों में मौजूद मंदिरों के दर्शन करने आते हैँ।

वहीं रुड़की के चुडि़याला गांव में एक ऐसा मंदिर है जहां श्रद्धालुओं की मुराद चोरी करने से पूरी हो जाती है। ये मंदिर चूड़ामणि देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है। चूड़ामणि मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या हजारों-लाखों में होती है। हालांकि, यहां ज्यादातर नि:संतान दंपत्ति ही आते हैँ।श्रद्धालु यहां दर्शन करके चूड़ामणि देवी के पैरों में पड़ा लकड़ी का गुड्डा चोरी करके ले जाते है। वे किसी से यह बात नहीं बताते है। ऐसी मान्यता है कि जब नि:संतान दंपत्ति की संतान पैदा हो जाती है तो वे मंदिर में दोबारा वापस जाकर दान-पुण्य करते हैँ।

चूड़ामणि मंदिर का निर्माण वर्ष 1805 में हुआ था। इसे लंढौरा रियासत के राजा ने बनाया था। एक बार राजा शिकार करने के लिए जंगल गए हुए थे कि तभी उन्हें माता की पिंडी के दर्शन हुए। प्रचलित कथाओं के अनुसार, उस समय राजा की कोई संतान नहीं थी, ऐसे में उन्होंने फौरन संतान प्राप्ति की मन्नत मांगी। कुछ ही समय बाद राजा को संतान की प्राप्ति हुई। इसके बाद राजा ने चूड़ामणि मंदिर का निर्माण कराया था।

मान्यता है कि जिन्हें पुत्र की चाह होती है वह जोड़ा यदि मंदिर में आकर माता के चरणों से लोकड़ा (लकड़ी का गुड्डा) चोरी करके अपने साथ ले जाए तो बेटा होता है। उसके बाद बेटे के साथ माता-पिता को यहां माथा टेकने आना होता है। कहा जाता है कि पुत्र होने पर भंडारा कराने के साथ ही दंपति अषाढ़ माह में ले जाए हुए लोकड़े के साथ ही एक अन्य लोकड़ा भी अपने पुत्र के हाथों से चढ़ावाना नहीं भूलते। गांव के लोगों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण 1805 में लंढौरा रियासत के राजा ने करवाया था।

जहां आज भव्य मंदिर बना हुआ है, पहले यहां घनघोर जंगल हुआ करता था। जहां शेरो की दहाड़ सुनाई पड़ती थी। पुराने जानकार बताते है की माता की पिंडी पर रोजाना शेर भी मत्था टेकने आते थे।माता चूड़ामणि के अटूट भक्त रहे बाबा बनखंडी का भी मंदिर परिसर में समाधि स्थल है। बताया जाता है की बाबा बनखंडी महान भक्त एवं संत हुए है। इन्होने यही 1909 में समाधी ली थी।

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