देहरादून: विश्व विरासत दिवस या विश्व धरोहर दिवस प्रतिवर्ष 18 अप्रैल को मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य यह भी है कि पूरे विश्व में मानव सभ्यता से जुड़े ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थलों के संरक्षण के प्रति जागरूकता लाई जा सके। लेकिन हमारा उत्तराखंड आज अपनी विरासत को संभालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है।
आधुनिकीकरण के दौर में लोग अपनी विरासत भूल रहे हैं जिससे की इस राज्य की अपनी कार्बिंग को लेकर विश्व पटल पर एक अलग पहचान थी। उत्तराखंड के पुराने घरों में आज भी लकड़ी के ऊपर वास्तुकला। जो हर किसी के घर के दरवाजों और खिड़कियों के ऊपर बहुत आसानी से देखने को मिल जाती थी। लेकिन जहाँ लकड़ी के घरों की जगह पक्के सीमेंट के घरों ने ले ली हैं वहीं आज हम इस महत्वपूर्ण कला को भी खोते जा रहे हैं।
पुराने भवन केवल मजबूत ही नही होते थे बल्कि पहाड़ के पर्यावरण के अनुसार सबसे अच्छे होते है। ये भवन आपको गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्मी का अहसास कराते है। इन भवनों में रहने से ही कई बीमारियों आप से दूर रहती है। 1991 में जब उत्तरकाशी में भूकंप आया तो सबसे ज्यादा नुकसान सीमेंट से बने मकानों को हुआ जबकि पहाड़ की पारंपरिक शैली से बने भवनों को ज्यादा नुकसान नही हुआ। पूरे उत्तराखंड में भवनों को बनाने की शैली भले ही अलग अलग हो लेकिन स्थानीय पत्थर, लकड़ी, चूना और मिट्टी का ही प्रयोग पुराने समय में होता था लेकिन अब इन घरों की जगह सीमेंट, सरिया और टाइल्स से बने भवनों ने ले ली है। पहाड़ के पारंपरिक घर भी काफी हद तक भूकंप रोधी हैं। पहाड़ी मकान स्थानीय कारीगर स्थानीय सामग्री जैसे पठाल, लकड़ी, पत्थर और लाल मिट्टी से बनाते थे। छत और पहली मंजिल का पूरा सहारा लकड़ी की कड़ियों और पटेलों पर होता है। मिट्टी और पत्थर की मोटी दीवारें होने से ये न सिर्फ कड़ाके की ठंड से बचाते हैं, बल्कि गर्मियों में भी कुछ हद तक ठंडक बनाए रखते हैं। अनोखे आकार और अनोखी शैली से बने ये घर काफी हद तक भूकंप रहित भी हैं।
यह एक सोचने का विषय है। लुप्त होती संस्कृति के संरक्षण के लिए वर्तमान सरकार सकारात्मक कदम भी उठा रही है, यह घर आज भी पर्यटकों और सैलानियों को भी खूब भाते हैं, जिससे यह घर पहाड़ों में आज भी आय भी एक अच्छा स्रोत बन रहे है नई भवन नीति में उत्तराखंड सरकार ने ऐसे लोगों को एक मंजिल और बनाने की छूट दी है जो पारंपरिक तरीके से अपने घर बनाते हैं।
जानकारों का मानना है की आज लकड़ी की कमी और वन कानूनों के आने के बाद पुराने मकान नही बन पाए। इसके अलावा अब वो कारीगर भी नही है जो लकड़ियों पर नक्काशी कर सके। हालांकि ऐसा नहीं है आज भी पहाड़ों में ऐसे कारीगर है जो पुश्तैनी मकान बना सकते है।
जिले पहाड़ी क्षेत्र में अभी भी लकड़ी और पत्थर के मकान बनाये जा रहे है। इसके अलावा देहरादून के चकराता टिहरी के घनसाली चमोली गढ़वाल के जोशीमठ पिथौरागढ़ के धारचूला और मुनस्यारी इलाके में पर्वतीय शैली में बने भवन आज भी पहाड़ की संस्कृति की अलग- झलक पेश करते हैं ।